शुक्रवार, 15 मार्च 2013

पहाड़ बौना नहीं होता

 
पहाड़ बौना नहीं होता 

पर्वत पर
लफ्फाजी नहीं चलती
वहाँ
श्रम जीता है
वहाँ कमर झुक जाती है
दूध का वर्तन को
या कपड़ो का गट्ठर
पीठ पर लादे-लादे।
       पर पहाड़ कभी नहीं झुकता
       वह सिर्फ
       प्रेम की गर्मी पाकर
       पिघलता है।
पहाड़ कभी बौना नहीं होता
वह बौनों को भी
ऊँचाई देता है
सिर पर बिठाता है।
       पर्वत पर
       सूरज की गर्मी है
       हिम का मुकुट है
       पर सुलगते हुए सवाल है,
कुछ लोग
पहाड़ को भुनाते है
वातानुकूलित कक्षों में
संगोष्ठियों करते है
और कुछ लोग पहाड़ पर
कंक्रीट के महल खड़े कर
अर्थ ही अर्थ पाते है
      पहाड़, फिर भी पहाड़ ही रहता है
       स्वाभिमान का प्रतीक। 

                                     डॉक्टर रेणु पन्त
   

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